झारखंड की भूमि आदिवासी संस्कृति का पालना रही है. सदियों से मानव सभ्यता यहां फलती-फूलती रही है. इस क्षेत्र में रहने वाले लोग आदिवासी कहलाए. यानी कि ऐसे निवासी जो लगभग सभ्यता की शुरुआत से ही यहां रहते आए हैं. प्रकृति के साथ सैकड़ों साल तक सामंजस्य बिठाते हुए ये आदिवासी प्रकृति पुत्र बन गए. जंगल, नदियां पहाड़ और झरने इनकी जिंदगी में ऑक्सीजन की तरह शामिल हैं.
झारखंड में आदिवासियों की कई जातियां और उप जातियां रहती हैं. झारखंड सरकार के मुताबिक झारखंड में 32 आदिवासी समूह अथवा जनजातियां रहती हैं. इनमें प्रमुख समूह मुंडा, संताल, उरांव, खड़िया, गोंड, असुर, बैगा, बिरहोर, गोडाइत, पहाड़िया इत्यादि हैं. मुंडा, संताल जैसी जनजातियां राजनीतिक रूप से सजग हैं. झारखंड की राजनीति में इनका अच्छा खासा दखल है. इनकी अनूठी परंपराएं और रीति रिवाज हैं. इन रिवाजों से आदिवासियों का प्रकृति प्रेम, इनकी सरलता और सहजता झलकती है.
दुल्हन के घर को संभालता है दूल्हा:-
आदिवासी समुदाय में एक विवाह ऐसा होता है, जहां लड़के को दुल्हन के घर में सालों रहना पड़ता है और उसके घर की गृहस्थी संभालनी पड़ती है. ऐसी स्थिति तब होती है जब लड़की का भाई नाबालिग होता है. ऐसी स्थिति में लड़के को पांच साल या उससे अधिक समय तक दुल्हन के घर रहना होता है और उसके यहां की गृहस्थी संभालनी होती है. दुल्हन का भाई जब बालिग होता है तो लड़के की जिम्मेदारी होती है कि वो उसे भाई का विवाह कराए, इसके बाद ही वह अपनी पत्नी को लेकर वापस अपने घर आता है.
विवाह में कलश का महत्व:-
आदिवासी समाज के विवाह में कलश का बहुत महत्व है. इसे कंड़सा भंडा कहा जाता है. ये विवाह कलश वधू और वर दोनों कूलों के पूर्वजों का प्रतीक है. इस प्रतीक के द्वारा पुरखों को विवाह में भाग लेने के लिए न्यौता दिया जाता है. कलश के ऊपरी सिरे पर इसके गले के आसपास धान की बालियों से बना आक मुकूट होता है. घड़े में अरवा चावल, हल्दी, दूब घास और सरसों के बीज होते हैं. घड़े के मुख पर दो बत्तियों वाला एक छोटा मिट्टी का दिया जलाकर रखा जाता है.
कंड़सा भंडा में वह सबकुछ समाहित है जो जीवन और दम्पति को खुशहाल बनाने के लिए जरूरी है. महिलाएं इसे अपने सिर पर रखकर नाचती हैं. ये समृद्धि, खुशहाली एवं मिलन, सामाजिक एकता और आदिवासी- भाईचारे का प्रतीक है.
