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Tuesday, March 17, 2020

क्या युवा नेताओं की छटपटाहट पार्टी और वरिष्ठों पर भारी पड़ रही है?

नई दिल्ली. ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस से बगावत के साथ ये सवाल तेज हो गया है कि क्या राजनीतिक दलों में युवा नेताओं ने अब अपने अधिकार लेने के लिए आर-पार की लड़ाई शुरू कर दी है. ये पहला मौका नहीं है जब किसी युवा नेता ने पार्टी के खिलाफ बगावत की हो. राजनीति में सत्ता हासिल करने के लिए परिवार और पार्टी से बगावत आम बात रही है लेकिन कांग्रेस में दोनों पीढ़ियों की लड़ाई अब सामने आ गई है. और इसके लिए युवा नेता कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया अकेले ऐसे नेता नहीं है जिन्होंने सत्ता और सम्मान के लिए पार्टी बाहर जाने का रास्ता चुना है. इससे पहले आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी ने कांग्रेस से बगावत कर अलग रास्ता चुना था. समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी 2012 में उत्तर प्रदेश की सत्ता सम्भालने के बाद अपने परिवार से बागवत की थी. चन्द्रबाबू नायडू और जयललिता ने भी अपनी पार्टी लाईन और दिग्गजों के खिलाफ जाकर सत्ता हासिल की थी.
सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार हैं युवा:-
मध्य प्रदेश की कांग्रेस की इस लड़ाई और ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ जाने वाले विधायकों पर नजर डालें तो साफ है कि इन विधायकों पर पार्टी की निष्ठा की जगह व्यक्तिगत निष्ठा भारी पड़ी है. इन विधायकों पर भले ही कई तरह के आरोप लग रहे हों लेकिन अगर हम करीब से देखें तो साफ हो जाएगा कि ज्यादा फायदा कांग्रेस और सरकार के साथ रहने में था क्योंकि सिंधिया के साथ जाने वाले सभी 22 विधायकों और 6 मंत्रियों के अपने पद से हाथ धोना पड़ेगा और नए सिरे से चुनाव में जाना पड़ेगा. चुनाव लड़ना और जीतना कितना मुश्किल काम है ये इन नेताओं से ज्यादा कौन जानता है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर सिंधिया से वफादारी ही अकेला कारण है या कुछ और. दूसरा सवाल ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर भी है क्या पार्टी में उपेक्षा इनती ज्यादा हो गई थी कि अब दूसरा कोई रास्ता नहीं बचा था या ये लड़ाई सत्ता पर कब्जा करने की है. क्योंकि सिंधिया समर्थक 2018 के विधानसभा चुनावों के पहले से ही उन्हें कांग्रेस का मुख्यमंत्री चेहरा मानते थे.
पूरब से लेकर दक्षिण तक हर जगह जारी है पीढ़ियों का संघर्ष:-
ऐसा नहीं कि ये सत्ता का संघर्ष सिर्फ पूरब की राजनीति में हो, दक्षिण में भी इसका इतिहास पुराना है. बात करें आंध्र प्रदेश की तो आंध्र प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी भी उसी सत्ता संघर्ष की पैदाइश हैं. उनके पिता और आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद उनके समर्थक उनको सत्ता का उत्तराधिकारी मानते थे लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने उनकी एक न सुनी और जगन को पार्टी से बाहर जाना पड़ा. थोड़ा और पहले जाए तो देखेंगे कि एमजीआर, जयललिता और चन्द्रबाबू नायडू जैसे नेताओं ने अपनी उपेक्षा के बाद ही नई पार्टी बनाई और राजनीति में नया इतिहास लिखा.
हर पार्टी में चल रही है पीढ़ियों की लड़ाई:-
क्षेत्रिय पार्टियों में तो ये लड़ाई राजनीति वरिष्ठों के साथ-साथ परिवार से भी करनी पड़ती है. चन्द्रबाबू नायडू को जहां अपने ससुर के खिलाफ जाना पड़ा वहीं समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के अपने चाचा शिवपाल यादव को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा. 2012 में सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री कई मौके ऐसे भी आए जब उन्हें अपने पिता मुलायम सिंह यादव के खिलाफ भी बोलना पड़ा. बिहार में भी तेजस्वी तेज प्रताप और मीसा यादव की लड़ाई कई बार परिवार से बाहर आ चुकी है.
बीजेपी ने बनाया पीढ़ियों में तालमेल:-
ऐसा नहीं कि बीजेपी में इस तरह के मौके नहीं आए. 2017 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में मिली बड़ी जीत के बाद राज्य में कई वरिष्ठ नेता मुख्यमंत्री पद की दौड़ में थे. मीडिया में कई सारे नामों की चर्चा थी इस दौड़ में कई बार केन्द्री मंत्री रहे नेताओं से लेकर कई बार सांसद और प्रदेश में सरकार में मंत्री रहे नेताओं के नाम था लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने अनुभव की बजाय युवा और लोकप्रिय चेहरे की तरजीह थी और उसका असर 2019 के लोकसभा चुनावों में भी देखने को मिला. एसपी-बीएसपी के गठबंधन के बाद भी बीजेपी ने उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में सहयोगियों के साथ मिलकर 64 सीटों पर कब्जा जमाया, 75 साल रिटायरमेंट की उम्र तय कर प्रधानमंत्री मोदी ने युवाओं बुजुर्गों देने को साफ संकेत दे दिया कि वक्त आने पर युवाओं को पद और सम्मान दोनों दिया जाएगा और वरिष्ठ नेताओं को ये संदेश दे दिया कि पार्टी कहे इससे पहले आप सक्रिय राजनीति स्वयं छोड़ दें .