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Monday, March 23, 2020

बड़ा सवाल- सिंधिया समर्थकों की निष्ठा को भांपने में नाकाम रहे कमलनाथ..?

ग्वालियर। 15 माह पुरानी मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार के गिरने की वजह राज्य की सत्ता का पूरी तरह से कांग्रेस के एक गुट विशेष में समाहित हो जाना रहा है. ज्योतिरादित्य सिंधिया अपनी ही सरकार में खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे थे. लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद कमलनाथ एवं दिग्विजय सिंह ने सिंधिया को पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया था. कांग्रेस के नेता उनकी नाराजगी को तो जान रहे थे, लेकिन यह अंदाजा नहीं लगा पाए कि सिंधिया कांग्रेस छोड़कर भारतीय जनता पार्टी में भी जा सकते हैं.
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का चेहरा थे सिंधिया:-
मध्य प्रदेश में 15 साल बाद सत्ता में कांग्रेस की वापसी सिंधिया के चेहरे के कारण भी संभव हो पाई थी. लेकिन कांग्रेस हाईकमान ने मुख्यमंत्री कमलनाथ को बनाया. सिंधिया उस वक्त से ही अपने आप को उपेक्षित महसूस कर रहे थे. सरकार में भी सिंधिया की भूमिका न के बराबर थी. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे बड़ी सफलता सिंधिया के प्रभाव वाले क्षेत्र ग्वालियर चंबल में मिली थी. अंचल की 34 में से 27 सीटें कांग्रेस के खाते में गई थी. जबकि कांग्रेस के दूसरे दिग्गज नेताओं के इलाके में पार्टी बुरी तरह पिछड़ गई थी. इसके बाद भी मंत्रिमंडल में सिंधिया के केवल छह मंत्रियों को ही जगह दी गई. उन्हें विभाग भी अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण दिए गए. विभागों में मुख्यमंत्री का दखल भी बहुत ज्यादा होने के कारण कई बार तनाव के हालात भी बने थे.
सिंधिया समर्थकों की निष्ठा भांप नहीं पाए:-
सिंधिया से टकराव और लोकसभा चुनाव में उनकी पराजय के बाद मुख्यमंत्री कमलनाथ यह मानकर चल रहे थे कि सिंधिया का जादू खत्म हो चुका है. उनके समर्थक विधायक धीरे-धीरे उनका साथ छोड़ देंगे. यह कोशिश भी की गई. कमलनाथ को यह अंदाजा कभी नहीं था कि वे भारतीय जनता पार्टी में जाने का निर्णय ले सकते हैं. सिंधिया के जब भाजपा में जाने की खबरें आई तो बाजी हाथ से निकल चुकी थी. समर्थक विधायक इस्तीफा दे चुके थे. भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के बाद सिंधिया ने साफ तौर पर कहा कि वे सम्मान से समझौता नहीं कर सकते. सिंधिया ने अपने मित्र राहुल गांधी को भी कई बार यह बताया कि सरकार में उनकी सिफारिशों को नजरअंदाज किया जा रहा है. राहुल गांधी भी सिंधिया की मदद नहीं कर सके, कारण मुख्यमंत्री कमलनाथ से भी उनका संवाद दोस्ताना नहीं था.
दिनेश गुप्ता
(डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं)