नई दिल्ली. कांग्रेस के पूर्व नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया अब बीजेपी को हो गए हैं. बुधवार को आखिरकार सिंधिया ने 'शुभ मुहूर्त' में बीजेपी ज्वाइन कर ली. बीजेपी ने भी देर नहीं की और उनको मध्य प्रदेश से राज्यसभा उम्मीदवार घोषित कर दिया. जाहिर है कि सिंधिया की नई पहचान अब बीजेपी नेता के तौर पर होने लगेगी. लेकिन, एक समय में राहुल गांधी के सबसे विश्वस्त सहयोगियों में से एक और कांग्रेस की लंबी रेस का घोड़ा कहे जाने वाले सिंधिया का कांग्रेस से मोह भंग कैसे हुआ? ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पार्टी छोड़ने के बाद भी कांग्रेस आलाकमान के खिलाफ कुछ नहीं कहा. सिंधिया की बातों से साफ झलक रहा था कि वह मध्य प्रदेश कांग्रेस की गुटबाजी और अपनी उपेक्षा से परेशान थे. आइए समझने की कोशिश करते हैं कि सिंधिया का कांग्रेस से मोहभंग कब से शुरू हुआ.
1- कैंपेन में तवज्जो, लेकिन सरकार गठन में नहीं:-
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के ठीक पहले सिंधिया MP कांग्रेस में काफी सक्रिय रह रहे थे. जब विधानसभा के टिकट बंटे तब दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह ने 'आपसी समझौते' के तहत सिंधिया के ज्यादातर उम्मीदवारों का नाम 3-1 से कटवाना शुरू कर दिया. CEC की बैठक में भी ज्योतिरादित्य ने दिग्विजय सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. ऐसा कहा जाता है कि दोनों के बीच तू-तू, मैं-मैं में भी हुई थी. बताया जाता है कि राहुल गांधी के हस्तक्षेप के बाद सिंधिया अपने कुछ समर्थकों को टिकट दिलवाने में कामयाब हो पाए थे.
2- मंत्रिमंडल गठन में भी नहीं चली:-
जब मध्य प्रदेश विधानसभा के नतीजे आए तो सिंधिया समर्थकों ने जबर्दस्त जीत हासिल की. कांग्रेस की सरकार बनाने को लेकर सुगबुगाहट शुरू हुई, तो सिंधिया का नाम भी सीएम पद की रेस में आया, लेकिन सहमति कमलनाथ के नाम पर बनी और सिंधिया मान गए. फिर मंत्रिमंडल विस्तार में सिंधिया की उतनी नहीं चली, जितने का वादा किया गया था. ऐसा बताया जाता है कि सिंघिया ने अपने लगभग 10 समर्थकों के लिए मंत्री पद मांगा था, लेकिन जब मंत्रिमंडल गठन किया गया तो उनके सिर्फ 6 करीबियों को ही जगह दी गई.
3- पश्चिमी यूपी प्रभारी का काम छोड़ा, टि्वटर प्रोफाइल बदली:-
सिंधिया का कांग्रेस पर से भरोसा टूटा, इसके बीच पार्टी में उनके प्रदर्शन का मामला भी उठा. लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने सिंधिया को पश्चिमी यूपी का प्रभार सौंपा था, लेकिन मध्य प्रदेश में अपनी अनदेखी की वजह से सिंधिया ने इस प्रभार की तरफ गंभीरता पूर्वक ध्यान नहीं दिया. यहां तक कि उन्होंने पश्चिमी यूपी के महासचिव पद पर काम करना बंद कर दिया. इसके कुछ दिन बाद सिंधिया ने टि्वटर पर अपनी प्रोफाइल भी बदल डाली, बावजूद इसके पार्टी के आलाकमान की जूं नहीं रेंगी. बताया जाता है कि जब कुछ नहीं हुआ तो अपनी बात 10 जनपथ पहुंचाई. लेकिन, कुछ तथाकथित वरिष्ठों की सलाह ने मामले को और बिगाड़ दिया।
4- एमपी में धुआंधार दौरे से भी तवज्जो नहीं मिली:-
सिंधिया जब सब तरफ से निराश हो गए तो उन्होंने जनता का मन टटोलना शुरू किया. एमपी का धुआंधार दौरा कर केंद्रीय नेतृत्व पर दबाव बनाना चाहा. फिर भी कुछ हासिल नहीं हुआ. जब ज्योतिरादित्य को लगा कि कोई सुन नहीं रहा है तो उन्होंने जमीन पर उतरना शुरू किया. हफ्ते में तीन दिन शताब्दी से ग्वालियर पहुंचते. सैकड़ों किलोमीटर कार से चलकर जन्मदिन, श्रद्धांजलि और शादी समारोहों में शामिल होते और देर रात ट्रेन से दिल्ली वापस आते. ये सक्रियता भी कांग्रेस आलाकमान को समझ नहीं आई.
5- प्रदेश अध्यक्ष भी नहीं बने और राज्यसभा की सीट पर संशय:-
मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पद के लिए सिंधिया और अन्य नेताओं की रार इस पूरे प्रकरण की एक बड़ी वजह के रूप में सामने आई है. सियासी जानकारों के मुताबिक एमपी कांग्रेस अध्यक्ष की फाइल दिग्गी-कमलनाथ के दबाव में लंबे समय तक इधर से उधर अटकती और भटकती रही. यही नहीं, हाल के दिनों में जब राज्यसभा की सीट को लेकर जिच शुरू हुई, तो उस समय भी सिंधिया समर्थक विधायकों ने 'महाराजा' के लिए मांग उठाई, लेकिन कांग्रेस आलाकमान की सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आई. एमपी-पीसीसी अध्यक्ष पद के बाद राज्यसभा सीट भी खटाई में पड़ती देख आखिरकार सिंधिया ने अंतिम फैसला ले लिया.
ऐसे में जब ज्योतिरादित्य ने सब कुछ आजमा लिया और दिग्गी-कमलनाथ के प्रभाव में उनकी सुनी नहीं गई, तो सब्र का बांध टूट गया. जानकारों का मानना है कि मध्य प्रदेश कांग्रेस की सरकार में उनके कहने पर न तो कोई काम हो रहा था न कोई ट्रांसफर पोस्टिंग हो रही थी. इसके बाद ही सिंधिया ने कांग्रेस को गुडबाय कहने का मन बना लिया.